पीड़ा से शक्ति तक — फूलन देवी की कहानी
पुण्यतिथि पर जोहार हिंदुस्तान की विशेष प्रस्तुति
आज फूलन देवी की पुण्यतिथि है। एक ऐसी स्त्री जिनकी जिंदगी उत्पीड़न, प्रतिशोध और न्याय की प्रतीक बन गई।
वे सिर्फ एक डकैत नहीं थीं — वे उस सामाजिक विद्रोह की जीती-जागती मिसाल थीं, जो सदियों से वंचित, दलित और महिलाओं पर ढाए गए अन्याय के खिलाफ खड़ा हुआ। फूलन देवी का जन्म 10 अगस्त 1963 को उत्तर प्रदेश के एक अत्यंत गरीब मल्लाह (निषाद) परिवार में हुआ।
जाति, गरीबी और पितृसत्ता — तीनों ने उनके जीवन को बचपन से ही घेर लिया।
11 साल की उम्र में जबरन शादी, 13 साल की उम्र में शारीरिक और मानसिक शोषण, और फिर समाज के उसी ढांचे में वापस फेंक दिया गया, जिसने उनकी कोई सुनवाई नहीं की।
जब एक स्त्री को इंसान मानने से इनकार कर दिया जाता है, तब वह खुद इंसाफ बन जाती है। फूलन देवी का अपहरण हुआ लेकिन डाकुओं के गैंग में जाने के बाद, उन्होंने अपनी किस्मत खुद लिखी। बेहमई हत्याकांड (1981) के पीछे सिर्फ प्रतिशोध नहीं था, बल्कि यह उस जातिवादी, सामंती व्यवस्था के खिलाफ एक उग्र प्रतिरोध था जिसने उन्हें मनुष्य से वस्तु बना डाला था।
हथियार छोड़कर, संविधान को अपनाया
1983 में फूलन ने आत्मसमर्पण किया। उनके आत्मसमर्पण की शर्तों में यह शामिल था कि उन्हें फांसी नहीं दी जाएगी, और केस जल्द खत्म किए जाएंगे। लेकिन उन्हें 11 साल जेल में बिताने पड़े। 1994 में रिहा हुईं, और फिर वही फूलन देवी जिसे कभी समाज ने डाकू कहा 1996 में संसद की गरिमा बनीं। वे समाजवादी पार्टी की टिकट से सांसद चुनी गईं और उत्तर प्रदेश की जनता ने उन्हें प्यार, भरोसे और उम्मीद के साथ संसद भेजा। संसद में उन्होंने हमेशा वंचितों, महिलाओं और दलितों की आवाज़ उठाई, महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर तीखे भाषण शिक्षा, सामाजिक न्याय और आरक्षण पर बेबाक राय दिया बलात्कार पीड़िताओं के लिए सख्त कानूनों की माँग की और अपनी कहानी को छुपाने की बजाय, हर पीड़ित महिला का साहस बनने की कोशिश की 25 जुलाई 2001 को दिनदहाड़े दिल्ली में फूलन देवी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। कहने को यह हत्या एक व्यक्तिगत प्रतिशोध थी, लेकिन असल में यह एक विचार की हत्या थी उस विचार की जो बोलता था, जो अन्याय से डरता नहीं था। फूलन देवी आज भी ज़िंदा हैं…