नोएडा: उत्तर प्रदेश के दादरी में 2015 में हुई सुनियोजित दादरी मॉब लचिंग कांड जिसमें मोहम्मद अखलाक को भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था, अब उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी आरोपियों के खिलाफ चल रहे मुकदमे वापस लेने की अर्जी अदालत में दाखिल कर दी है। यह फैसला लगभग 10 साल बाद आया है और कानूनी, सामाजिक, और राजनीतिक विवादों को दोबारा उजागर कर रहा है।
केस का इतिहास और प्रमुख तथ्य
28 सितंबर 2015 को ग्रेटर नोएडा के बिसाहड़ा गांव में अफवाहों के चलते यह घटना हुई थी। तब अखलाक पर गोमांस रखने का आरोप लगा था, जिसके बाद भीड़ ने उन पर हमला किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इस घटना में अखलाक के बेटे दानिश भी गंभीर रूप से घायल हुए थे।
एफआईआर में 10 नामजद आरोपियों दर्ज किए गए थे।
मामले की सुनवाई 12 दिसंबर 2025 को सूरजपुर कोर्ट में निर्धारित की गई है।
अभियोजन वापसी की अर्जी सीआरपीसी की धारा 321 के अंतर्गत की गई है, जिसे अदालत में पेश किया गया है।
आरोपी कौन हैं?
सभी 10 आरोपी वे वही नामजद व्यक्ति हैं जिन्हें सरकार की अर्जी के अनुसार, आरोपों से मुक्त किया जाना है।
इसमें से मुख्य आरोपी विशाल सिंह का नाम अक्सर खबरों में आता रहा है — उसका नाम उस रैली में भी सामने आया था जहाँ वह ‘योगी-योगी’ के नारे लगा रहा था।
इससे जुड़ी एक अन्य घटना में पूर्व विधायक संगीत सोम को भी भड़काऊ भाषण देने का दोषी ठहराया गया था और उसपर जुर्माना लगाया गया था।
सरकार का फैसला और विवाद
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अभियोग वापस लेने की औपचारिक प्रक्रिया शुरू कर दी है, और डीएम के कार्यालय को आवश्यक निर्देश दिए गए हैं।
इस कदम को लेकर सियासी और सामाजिक विरोध भी तेज है — पूर्व एसपी सांसद एसटी हसन ने कहा है कि यह फैसला न्याय व्यवस्था के प्रति “गंभीर आशंका” बढ़ा सकता है।
अखलाक के परिवार के वकील यूसुफ़ सैफी अभी तक दस्तावेजों की समीक्षा नहीं कर पाए हैं और उन्होंने कहा है कि “जब तक किसी आधिकारिक फार्मलिटी को नहीं देखा जाए, टिप्पणी करना मुश्किल है।”
अतिरिक्त ऐतिहासिक और मानवता एंगल
अभियोजन वापस लेने की अर्जी के चलते न्याय प्रक्रिया और भीड़ हिंसा के विरुद्ध जवाबदेही पर सवाल फिर उठ गए हैं।
अखलाक की बेटी शाइस्ता ने अदालत में बयान दिया था कि हत्याकांड के समय हमलावरों ने उनके पिता का सिर सिलाई मशीन से मारा था और उन्होंने पुलिस को कॉल करने की कोशिश की थी, लेकिन हाथापाई के कारण मोबाइल पर “100” भी नहीं डायल कर पाये थे।
यह केस भारतीय लोकतंत्र में भीड़ हिंसा, धार्मिक असहिष्णुता और कानूनी निष्पक्षता की लंबी लड़ाई का प्रतीक बन चुका है।
उत्तर प्रदेश सरकार का यह कदम — 10 वर्षों बाद भीड़ हिंसा के आरोपियों के खिलाफ केस वापस लेने का — सिर्फ एक कानूनी मोड़ नहीं है, बल्कि देश में न्याय, जवाबदेही और सांप्रदायिक सहिष्णुता के मुद्दों पर एक नया बहस खड़ी कर रहा है।
आगे की सुनवाई (12 दिसंबर) न सिर्फ इस मुकदमे का भविष्य तय करेगी, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की असल परीक्षा भी होगी।
