जोहार हिंदुस्तान | नई दिल्ली : 2020 के दिल्ली दंगा मामले में गिरफ्तार और पिछले पांच वर्षों से बिना ट्रायल तिहाड़ जेल में बंद खालिद सैफी को आखिरकार अदालत से 10 दिन की अंतरिम जमानत मिल गई है। यह जमानत उनके छोटे भाई की गंभीर तबीयत को देखते हुए दी गई है।
कौन हैं खालिद सैफी?
खालिद सैफी दिल्ली के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं और “यूनाइटेड अगेंस्ट हेट” नामक संगठन से जुड़े रहे हैं। उन पर फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों की साजिश रचने का आरोप लगाया गया था। पुलिस ने उन्हें यूएपीए (UAPA) समेत कई गंभीर धाराओं में गिरफ्तार किया।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और समर्थकों का कहना है कि खालिद सैफी और कई अन्य आरोपियों को राजनीतिक प्रतिशोध और विरोधी आवाज़ों को दबाने के लिए फंसाया गया है।
पांच साल से जेल में, ट्रायल शुरू नहीं
खालिद सैफी समेत दिल्ली दंगा मामले के दर्जनों आरोपी 2020 से जेल में हैं, लेकिन अभी तक उनके खिलाफ मुकदमे की सुनवाई शुरू नहीं हो पाई है। इस कारण वे बिना सजा के सालों से जेल में बंद हैं। यह स्थिति देश की न्यायिक प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े करती है।
परिवार की अपील और अदालत का आदेश
खालिद सैफी के छोटे भाई की तबीयत अचानक बिगड़ गई, जिसके इलाज और देखरेख के लिए परिवार ने अदालत से जमानत की अपील की। अदालत ने मानवीय आधार पर यह अपील स्वीकार करते हुए 10 दिन की अंतरिम जमानत मंजूर की।
अदालत ने साफ किया कि यह जमानत सिर्फ अस्थायी है और तय समय खत्म होने पर उन्हें वापस जेल लौटना होगा।
रिहाई की रात भावुक माहौल
देर रात तिहाड़ जेल से रिहा होते समय जेल के बाहर भावुक दृश्य देखने को मिले। परिवार, रिश्तेदार और समर्थक कई घंटों से उनका इंतजार कर रहे थे। जैसे ही वे बाहर आए, भीड़ ने उनका स्वागत किया, लोग गले मिले, आंसू बहाए और कुछ ने नारे भी लगाए।
मानवाधिकार संगठनों की प्रतिक्रिया
कई मानवाधिकार संगठनों ने खालिद सैफी की अस्थायी रिहाई का स्वागत किया, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि यह न्याय का विकल्प नहीं है। उनका कहना है कि पांच साल से बिना ट्रायल लोगों को जेल में रखना संविधान और न्याय व्यवस्था दोनों के खिलाफ है।
दिल्ली दंगा केस – एक नजर में
फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों में 50 से ज्यादा लोगों की जान गई थी और सैकड़ों घायल हुए थे। पुलिस ने दावा किया कि यह हिंसा सुनियोजित थी और इसके पीछे कई एक्टिविस्ट और छात्र नेताओं की भूमिका रही।
हालांकि, कई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों और पत्रकारों की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि दंगों की जांच पक्षपाती थी और ज्यादातर गिरफ्तारी एक ही समुदाय के युवाओं की हुई।